आग पर चलना कोई सिद्धि चमत्कार नहीं है वरन गर्मी और दाह के बीच के अंतर को समझते हुए एक विज्ञान सम्मत प्रयास मात्र है. अग्नि हर वस्तु को पेट्रोल के समान तुरंत ही नहीं जला देती — जलने वाली वस्तु का क्रमबद्ध संपर्क उसमें सजलता का अंश तथा ईंधन में रहने वाले ज्वलन-शील तत्वों की मात्रा पर यह बात निर्भर है कि कितनी देर में कितने तापमान की अग्नि से क्या वस्तु जल सकती है.
यदि ज्वलंत भाग के मध्य में कम तापमान हो और अग्नि तथा ईंधन के बीच बार-बार व्यवधान पड़ता रहे — वे लगातार चिपक न रहे तो जलने की प्रक्रिया संभवतः समय साध्य हो जाएगी.
अग्नि पर चलने का जादू इन्हीं वैज्ञानिक तथ्यों पर अवलंबित है जैसे कुछ अभ्यस्त लोग सहज ही दिखाकर भोली जनता को चमत्कृत कर सकते हैं.
फौजी द्वीप में ‘विलविलेरियों’ नाम का उत्सव होता है जिसमें वहां के निवासी आग पर नाचते कूदते हैं उनके पैरों में छाले तक नहीं पड़ते. अजनबी दर्शक उसे चमत्कार मानते हैं और देखकर चकित रह जाते हैं.
पर जिन्हें वास्तविकता की जानकारी है उनके लिए यह क्रीड़ा कौतुक मात्र है. होता यह है कि 30 फीट की गोलाई का एक गड्डा खोदकर उसमें सुखी जलाऊ लकड़ियां भर दी जाती है. उनमें आग लगाई जाती है. जब वह लकड़ियां जलने लगती है तो ऊपर से पत्थर लुढ़का दिए जाते हैं. पत्थरों को कई घंटे तपने दिया जाता है. इसके बाद उन गरम पत्थरों पर हरी पत्तियां फैला दी जाती है इससे वहां धुएं जैसे बादल उठने लगते हैं. आग और बादलों के बीच नाचने का नाटकीय दृश्य बहुत ही कौतूहल वर्धक लगता है.
इस आयोजन के संयोजक इस कृत्य कौतुक का रहस्य बताते हैं कि उस प्रदेश में शश जाति का एक विशेष पत्थर होता है जिसकी बनावट झिरझिरी और छिद्रपूर्ण होती है. वे आग से लाल तो हो जाते हैं पर उनमें उष्मा ठहरती बिल्कुल नहीं फिर इन पर बिछी हुई पत्तियां भी पैरों की रक्षा करती है फलस्वरूप नर्तक अपना नृत्य घंटों बिना किसी कठिनाई के जारी रख सकते हैं.
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वाराणसी जिले में अहीर जाति में मनौती के रूप में देवता का ‘कहाड’ चढ़ाने की प्रथा है. इस विधान में गोबर के उपलों में आग सुलगा कर मिट्टी के 3 बड़े घरों में खीर बनाई जाती है. इसे ‘लईया’ क्या कहते हैं. एक घड़ा अहीरों के जाति देवता कृष्ण का — दूसरा कुलदेवी वनसंती का तीसरा दुर्गा का होता है. पूड़ियां भी बनती है और उस प्रसाद को लेने के लिए उस क्षेत्र के लोग दूर-दूर से आते हैं
इस विधान को पूरा करने के लिए उस क्षेत्र का ओझा ‘भगत’ आता है. उसे 25 घड़े जल से स्नान कराया जाता है. इसके बाद वह खीर के उबलते दूध में अपना हाथ कोहनी तक डालकर उसे चलाता है. इसी प्रकार व पूड़ियों के लिए खौलते घी में भी अपना हाथ डालता है पर जलता नहीं यह विधान पूरा करते हुए वाराणसी से 10 मील दूर परानापुर गांव के बांजू भगत को एक दर्शक ने अपनी आंखों से देखा था.
इस प्रकार के क्रीड़ा कौतुक यत्र-तत्र देखने को मिलते रहते हैं. उन्हें जादू मंत्र या देवता की सिद्धि समझ कर बहुत लोग चढ़ावा मनौती के रूप में गांठ कटाते रहते हैं. बाजीगर मुंह से ही आग शोले निकालने हाथ पर अंगारा रखें फिरने जैसे कई खेल दिखाता है इनमें अग्नि का प्रभाव कब कहां कितना और कैसे होता है इनकी जानकारी प्राप्त करके तदनुकूल अभ्यास कर लेने भर की विशेषता रहती है ऐसे खेल तमाशा को योग सिद्धि के साथ नहीं ही जोड़ा जाना चाहिए.
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Credit : Akhand Jyoti Magazine
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bhut acchi post share ki hai aapne
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