एलोपैथिक दवाई खाने से होने वाले नुकसान

एलोपैथिक दवाओं (allopathic medicines) के अधिक सेवन से हमारे शरीर को बहुत ही नुकसान पहुंच सकती है। बीमार पड़ते ही हम दवादारू की खोज में दौड़ पड़ते है और एक के बाद दूसरे डॉक्टर के पास इस तरह बेतहासा दौड़ते है मानो दवाओं के न मिलने से ही बीमारियां पैदा हुई हों और डॉक्टरों के हाथ में उन्हें दूर करने का जादू भरा हो।

हमारी आहार-बिहार संबंधी भूलों के दंडस्वरूप बीमारियां आती है, उनका उद्देश्य देह में भीतर भरे हुए विषों को निकाल बाहर करना होता है। रुग्णता के क्षणों में हमें पेट, मस्तिष्क तथा दूसरे अवयवों को विश्राम देना चाहिए और धैर्यपूर्वक ऐसी परिचर्या करनी चाहिये ताकि रोग निवारण के लिए प्रकृति द्वारा जो भीतर ही भीतर प्रबल प्रयत्न किये जा रहे हैं, उनको सहायता मिल सके।

दवाएं — विशेषतया एलोपैथिक दवाएं रोगों को उभार कर बाहर निकलने से रोकती है और उन्हें भीतर ही भीतर दवाने का प्रयत्न करती है। इससे दुहरी हानि है। दबाया हुआ विष किसी अन्य रोग के नाम से फूटकर फिर बाहर निकलता है। इस प्रकार के रोग दूर नहीं होने पाता तब तक दूसरा नया आकर खड़ा हो जाता है।

दूसरी हानि यह है कि यह दबाने वाली दवाएँ स्वयं ऐसे रसायनों से बनी होती है जो स्वयं विषाक्त होते है। विष से विष को मारने के प्रयास में पिछला विष तो निकल नहीं पाता उलटा उपचार की विषाक्तता मिलकर उसे दुगना कर देती है।

allopathic medicines ka side effects

यह दवाएं तात्कालिक चमत्कार दिखाकर पीड़ित को चकित तो जरूर करती है, पर उसके मूलकारण का समाधान करने में तनिक भी सहायता नहीं करती, वरन उस व्यथा की जड़ें और भी अधिक गहरी कर देती हैं। इस प्रकार तीव्र औषधियों के प्रयोग का वर्तमान प्रचलन वस्तुतः रोग निवारण में सहायक न होकर अंततः उसमें वृद्धि करने वाला ही सिद्ध होता है।

चिकित्सकों के लिए उचित था कि वे रोगी को उसकी रुग्णता का कारण समझाते और जिन भूलों की वजह से बीमारी आई है उसे सुधारने के लिये — सरल स्वाभाविक आहार-विहार अपनाने के लिए समझाते। उपचार की दृष्टि से विश्राम, उपवास का परामर्श देते और आवश्यकता पड़ती तो हानि रहित जड़ी-बूंटियाँ तथा मिट्टी, पानी, वायु, ताप आदि की उपचार प्रक्रिया से सामयिक कष्ट को हल्का करने का प्रयत्न करते। पर रीति-नीति उल्टी ही अपनाई गई है।

उतावला मरीज तत्काल अपना कष्ट दूर करना चाहता है और चिकित्सक उसे जादुई दवा देकर अपने कौशल का सिक्का बिठाता है। इस चमत्कारी खोज खिलवाड़ में रोगी बहुत घाटे में रहता है, वह कष्ट दूर करने के इच्छा से इलाज करने का प्रयत्न करता है किन्तु होता ठीक विपरीत है। दवाइयों की विषाक्तता और भरमार उसे एक प्रकार से उनको बीमारियों से सदा के लिये ग्रसित बना देती है।

इस स्थिति का लाभ उठाकर कुछ चिकित्सक अपने आपको सम्पन्न बना सकते है, पर समझदार डॉक्टरों ने सदा औषधियों के भ्रम जंजाल को निरस्त किया है उर उनसे होने वाली हानियों से सर्वसाधारण को परिचित कराया है। मूर्धन्य ऐलोपैथी डाक्टर अपने लिये ईमानदारी का कर्त्तव्य समझते है कि वे दवाओं को अत्युत्साह पूर्वक दिये और खाये जाने का निषेध करने और यह समझाएं कि औषधि खाये बिना भी रोग दूर हो सकते है, यदि आहार-बिहार का बिगड़ा हुआ क्रम सुधार लिया जाय।

दुनिया में अनेक प्रकार के अंध-विश्वास फैले हुए है उन्हीं में से एक भी है कि दवा में जादुई गुण होते है और उनके बिना रोगों से निवृत्ति नहीं हो सकती। इस बहम का निराकरण किया जाना चाहिए और तीव्र औषधियों के दुष्परिणामों से होने वाली हानियों से सर्वसाधारण को बचाया जाना चाहिए।

  • डा ० वेकर कहते थे — बुखार से मरने वालों की संख्या उतनी नहीं होती जितनी बुखार दूर करने की दवाओं से मरने वालों की।
  • कान्सास चिकित्सा विश्व विद्यालय के विश्व विख्यात डाक्टर जेम्से डी. राइजिंग ने अपनी पुस्तक पोस्ट ग्रेजुएट मेडीसन’ में लिखा है — ‘अब औषधि उत्पादक कारखाने तेजी से बढ़ रहे हैं, उसी अनुपात से बीमारियाँ भी बढ़ रही हैं। बीमारियाँ उत्पन्न करने वाले समस्त कारणों की तुलना में दवाओं से उत्पन्न बीमारियों का अनुपात कहीं अधिक है।
  • कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सर वाल्टर लौडन ब्राउन ने मेडीकल सोसाइटी आफ इंडिविजुअल साइकालोजी के अधिवेशन में अपने एक लेख का सार सुनाते हुए कहा था — मैं अपने निष्कर्ष के अनुसार पूरी ईमानदारी के साथ कहता हूं की हम डाक्टर लोग जनता के लिए सबके लिए अधिक खतरनाक है। हम काल्पनिक आधारों पर ऐसी चिकित्सा करने लगते हैं जिससे रोगियों को एक नए जंजाल में फंसे जाने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं मिलता।
  • विश्व विख्यात चिकित्सा विज्ञानी जोशिया ओल्फील्ड ने अपने ग्रंथ ‘हीलिंग एन्ड लेकर ऑफ पेन’ में स्पष्ट किया है कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति, मात्र रोगों के लक्षण बदलती है और उन्हें पुराना तथा असाध्य बनाती है।
  • ‘ब्रिटिश मेडिकल जनरल’ और ‘जनरल आफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन जैसी प्रख्यात चिकित्सा पत्रिकाओं में ऐसे कई लेख उदाहरण समेत छपे है जिनमें बताया गया है कि एंटीबायोटिक (antibiotic) दवाओं के अंधाधुंध प्रयोग का कितना भयानक दुष्परिणाम रोगियों को भुगतना पड़ता है।
  • फिलाडेफिया के डाक्टर रावर्ट वाइज ने सल्फाड्रग और टैट्रासाईक्लीन वर्ग की औषधियों के बारे में तो इनसे मरते है, पर पीछे वे इतने अभयस्त हो जाते है कि मरने की अपेक्षा वे इन दवाओं के प्रभाव से और भी अधिक बलवान बनकर रोगी का विशेष अहित करते है।

स्टैप्टोमाइसिन के प्रयोग से श्रवण शक्ति का घट जाना क्लोर — स्फेनिकोल से अस्थिक्षय एवं रक्त-विकार होना अब एक स्पष्ट तथ्य की तरह सर्वविदित होता जा रहा है। ‘लासेन्ट’ पत्रिका में एक बीमार गाय का पेन्सलिन इंजेक्शनों से उपचार का वह समाचार छपा है जिसमें बताया गया है कि गाय तो अच्छी हो गई, पर उसका दूध पीने वाले चर्म रोग से ग्रसित हो गए।

सल्फानोयाइड और एंटीबायोटिक दवाओं ( antibiotic medicines) के प्रयोग के साथ जुड़ें हुए खतरे की भी हमें जानकारी होनी चाहिए। रायल हॉस्पिटल लंदन के रोग कीटाणु विशेषज्ञ डा ० ए ० मेलविन रेमजे ने विश्व विख्यात चिकित्सा पत्रिका ‘मेडिकल वर्ल्ड’ में एक लंबा लेख लिखकर एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति चिकित्सकों के अत्युत्साह के विरुद्ध गंभीर चेतावनी दी है और कहा है ये दवाएं रोग कीटाणुओं को मारती तो है, पर उससे कम हानि उन स्वस्थ कणों को भी नहीं पहुंचाती जो जीवन रक्षा के आधार स्तम्भ है।

medicine capsule

डाक्टरी पत्रिका ‘लासेन्ट’ के संपादक ने एंटीबायटिक दवाओं के कारण उत्पन्न नए रोगों का विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि अस्पतालों में भर्ती रोगियों में कितनों को इन्हीं दवाओं के कारण आंतों की सूजन सरीखे नए रोगों का शिकार बनाना पड़ता है। इसी पत्र ने एक अन्य लेख में ‘पेनिसिलीन’ (penicilin) के अंध भक्त को भी लताड़ा है। ‘मेडिकल वर्ल्ड’ में छापे एक लेख में बताया गया है कि किस प्रकार ‘पेनिसिलीन’ के अधिक प्रयोग से सहस्त्रों व्यक्तियों की जाने जाती है।

डॉ. ई. आर. बोसली का कथन है कि — तेज दवाओं के उपयोग का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि रोगी की पाचन-प्रणाली सदा के लिए अस्त-व्यस्त हो जाती है और वह स्थायी रूप से पेट की बीमारियों का शिकार हो जाता है।

डॉ. इवांग ने कहा है कि हमें ‘नोन केमिकल’ (non-chemical) चिकित्सा पर ध्यान देना चाहिए और रोगियों को दवाओं का अधिक आदि न बनाकर उन्हें आहार सुधार, रहन-सहन में परिवर्तन श्रम प्रोत्साहन संतुलित, मनःस्थिति एवं सरल वातावरण रखने की शिक्षा देकर उन्हें स्वस्थ रहने का रहस्य समझाना चाहिए।

प्रख्यात फ्रांसीसी विद्वान वाल्टेयर ने प्रचलित चिकित्सा अंधेर पर व्यंग करते हुए कहा था — ‘हम ऐसी दवाओं का उपयोग करते हैं जिनके बारे में हमें बहुत थोड़ा ज्ञान है। इन दवाओं का ऐसे शरीर पर उपयोग करते हैं जिसके बारे में हमारी जानकारी उससे भी थोड़ी है। आश्चर्य यह है कि इन दवाओं का ऐसे रोगों के लिए प्रयोग करते है जिनके संबंध में हम नहीं के बराबर जानते है।

वियना के एक स्वास्थ्य अधिकारी डा. स्कीड अपने युग के जर्मनी के मान्य चिकित्सक माने जाते थे। उन्होंने नगर के जनरल हॉस्पिटल में कुछ समय तक एक अद्भुत प्रयोग किया। उन्होंने सभी रोगों के सभी मरीजों को केवल घास का काढ़ा पिलाया। इसका नतीजा भी ठीक वही निकला जो उस अस्पताल के पिछले मरीजो पर प्रयुक्त होने वाली कीमती दवाओं के प्रयोग का हुआ था।

इस प्रयोग को प्रस्तुत करने का उनका मंतव्य यह था कि लोगों को यह बताया जा सके कि प्रकृति अपने ढंग से अपना रोग निवारण का कार्य निरन्तर करती रहती है औषधियों को जो श्रेय मिलता है वह निरर्थक है। कीमती औषधियाँ और घास के काढ़ें में कोई अंतर नहीं है। जो श्रेय बहुमूल्य समझी जाने वाली औषधियों को मिलता है वही घास के काढ़ें को भी मिल सकता है। 

एलोपैथिक दवाओं (allopathic medicine) का हमें अधिक सेवन नहीं करना चाहिए वरना इसका बहुत ही बुरा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ सकता है।

यह लेख अखंड ज्योति पत्रिका से लिया गया है। अगर पोस्ट पसंद आया हो तो इसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प पर शेयर करें।

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Himanshu Kumar
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