बिजली की शक्ति ने संसार के भौतिक विकास में असाधारण सहायता की है। भाप, तेल, गैस की सहायता से शक्ति प्राप्त करने के बात अब पिछले जमाने की बात हो गई।
इन समस्त शक्ति स्रोतों से भी अद्भुत एक और शक्ति है। जिसकी ओर न जाने क्यों हमारा ध्यान गया ही नहीं। वह है – मानवी विद्युत। यह अधिक गहराई के साथ समझा जाना चाहिए कि प्राणियों के शरीरों में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति ही उनके शरीर संस्थान एवं मनः संस्थान को अधिक समर्थ एवं सुविकसित बना सकती है। कहना न होगा कि सुविकसित व्यक्तित्व संसार की समस्त शक्ति सम्पदाओं से हमारे लिए बढ़-चढ़कर उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
भौतिक जगत में अग्नि, भाप, गैस, तेल, बिजली, अणु विस्फोट, लेसर आदि का जो महत्व है उससे कहीं अधिक उपयोगिता सजीव प्राणियों के लिए उस बिजली की है जो उनके शरीरों में पाई जाती है। मनुष्य में भी इन विद्युत शक्ति का अजस्र भंडार भरा पड़ा है।
संसार की संचार प्रणाली का मूल आधार क्या है ? इसका सूक्ष्माति सूक्ष्म कारण ढूँढने पर वे शरीर विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पेशियों में काम करने वाली स्थिति तक ऊर्जा ‘पोटेंशियल’ का तथा उसके साथ जुड़े रहने वाले आवेश — इन्टेन्सिटी — का जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है। इन विद्युत-धाराओं के वर्गीकरण तथा नामकरण — सीफेलीट्राइजे-मिल न्यूरैलाजिया की व्याख्या-चर्चा के साथ प्रस्तुत किया जाता है। ताप विद्युतीय संयोजन — थर्मोलैरिक कपलिंग — के शोधकर्त्ता अब इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव शरीर का सारा क्रिया कलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।
पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक चुम्बकीय वातावरण फैला हुआ है। अकेला गुरुत्वाकर्षण कार्य ही नहीं उससे और भी कितने ही प्रयोजन पूरे होते है। यह चुम्बकत्व आखिर आता कहाँ से है — उसका उद्गम स्रोत कहाँ है ? यह पता लगाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि यह कोई बाहरी अनुदान नहीं वरन पृथ्वी के गहन अंतराल से निकलने वाला शक्ति प्रवाह है।
लोहे की सुई यदि धागे में बांधकर अधर लटकाई जाय तो उसका एक सिर उत्तर की ओर दूसरा दक्षिण की ओर होगा। दिशा निर्देशक यंत्र (कम्पास) इसी आधार पर बनते है। कितने ही जीव-जंतु अपने महत्वपूर्ण कार्य इसी चुम्बकीय प्रवाह के आधार पर पूरे करते रहते है।
कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुंड बनाकर सहस्रों मिल लंबी उड़ानें भरते हैं। वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुंचते है। इनकी उड़ानें प्रायः रात में होती हैं। उस समय प्रकाश जैसी कोई इस प्रकार की सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती जिससे वे यात्रा लक्ष्य की दिशा जान सके। यह कार्य उनकी अन्तःचेतना पृथ्वी के इर्द-गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानो किसी सुनिशित सड़क पर चल रहे हों।
टरमाइट कीड़ा (दीमक) अपने घरों का निर्माण तथा उनका प्रवेश द्वार सदा निर्धारित दिशा में ही बनाते है। इसके पीछे ही उनकी आंतरिक संवेदना द्वारा पृथ्वी के चुम्बकीय प्रहाव को पहचानने की सफलता ही काम करती है।
जैवसैलो का सूत्र विभाजन कार्य उसके मध्य बिंदु में चलता है उसमें यही दिशा ज्ञान काम करता है। क्रोमोजोम (chromosome) cell के मध्यवर्ती ध्रुव की दिशा की ओर रहती है। उसे दिशा ज्ञान कैसे रहता है ? इस प्रश्न का उत्तर भी यही रहता है कि पृथ्वी के चुम्बकीय प्रवाह को हमारे जीव सैल की आंतरिक सत्ता अनुभव कर सकती है और उसी आधार पर अपनी गतिविधि का निर्धारण कर सकती है।
चुम्बक और विद्युत यों प्रत्यक्षतः दो पृथक-पृथक सत्ताएं है पर वे परस्पर अविछिन्न रूप से संबंध हैं और समयानुसार एक धारा का दूसरी में परिवर्तन होता रहता है। यदि किसी ‘सरकिट’ (circuit) का चुम्बकीय क्षेत्र लगातार बदलते रहा जाए तो बिजली पैदा हो जायेगी। इसी प्रकार लोहे के टुकड़े पर लपेटे हुए तार में से विद्युत धारा प्रवाहित की जाय तो वह चुम्बकीय शक्ति सम्पन्न बन जाएगी।
मनुष्य शरीर मे बिजली काम करती है यह सर्व-विदित है। इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफी तथा इलेक्ट्रो इनसिफैलोग्राफी के द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लौह युक्त ‘हेमोग्लोविन‘ (hemoglobin) भर पड़ा है। लौह चूर्ण और चुम्बक जिस प्रकार परस्पर चिपके रहते हैं, उसी प्रकार हमारी जीव सत्ता सभी जीव कोषों को परस्पर सम्बद्ध किये रहती है और उनकी संमिश्रित चेतना से वे समस्त क्रियाकलाप चलते है जिन्हें हम जीवन संचार व्यवस्था कहते है।
शरीर में चमक, स्फूर्ति, श्रम, रुचि, ताजगी, उमंग, उत्साह, शौर्य, साहस जैसी जो प्रवृत्तियाँ पाई जाती है उनके पीछे मानवी विद्युत की अभीष्ट मात्रा का होना ही आंका जा सकता है। मनस्वी, तेजस्वी, ओजस्वी, तपस्वी जैसे शब्दों से ऐसे हो लोगों को संबोधित किया जाता है।
ऐतिहासिक व्यक्तियों की पंक्ति में ऐसे ही लोग खड़े होते है। यहां तक कि आंतकवादी खलनायक भी इसी शक्ति के सहारे अपने भयानक दुष्कर्मों में सफलता प्राप्त करते हैं। ऐतिहासिक महामानवों में से प्रत्येक को इसी अंतः शक्ति का सहारा मिलता है और वे महान कार्यों में साहसपूर्वक आगे बढ़ते चले जाते है।
मानवी शरीर के शोध इतिहास में ऐसे अनेक घटनाओं का उल्लेख है जिनसे यह सिद्ध होता है कि किन्हीं-किन्हीं शरीरों में इतनी अधिक बिजली होती है कि उसे दूसरे लोग भी आसानी से अनुभव कर सके। यों हमारा नाड़ी संस्थान पूर्णतया विद्युतधारा से ही संचालित होता है। मस्तिष्क को जादुई बिजली घर कह सकते हैं, जहां से शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंगों की गतिविधियों का नियंत्रण एवं संचालन होता है पर वह बिजली ‘जीव विद्युत’ वर्ग की होती है और इस तरह अनुभव में नहीं आती जैसी कि बत्ती जलाने या मशीने चलाने वाली बिजली।
शरीर में काम करने वाली गर्मी से विभिन्न अवयवों की सक्रियता रहती है और वे अपना-अपना काम करते है। यह कायिक ऊष्मा वस्तुतः एक विशेष प्रकार की बिजली ही है इसे मानवी विद्युत कह सकते हैं। इतने पर भी वह यांत्रिक बिजली से भिन्न ही मानी जाएगी। वह अपना प्रभाव शरीर सञ्चालन तक ही सीमित रखती है। इससे बाहर उसका प्रभाव अनुभव नहीं किया जाता, किन्तु कुछ अपवाद ऐसे भी देखने में मील हैं जिनमे शरीरगत ऊष्मा ने यांत्रिक बिजली की भूमिका निभाई है और उस व्यक्ति को एक चलता-फिरता बिजलीघर सिद्ध किया है।
मानवी शरीर की विलक्षणताओं की चर्चा करते हुए उन प्रामाणिक घटनाओं का उल्लेख अक्सर किया जाता रहता है जिनकी यथार्थता सुविज्ञ लोगों ने पूरी जांच पड़ताल के बाद घोषित की ही। मनुष्य शरीर में भी यांत्रिक बिजली की आश्चर्यजनक मात्रा हो सकती है, इसके कितने ही उदाहरण सर्वविदित है।
- कोलोराडी प्रान्त के लेडीवली नगर में के. डब्ल्यू. पी. जोन्स नाम का एक ऐसा व्यक्ति हुआ है जो जमीन पर चलकर यह बात देता था कि जिस भूमि पर वह चल रहा है उसके बीच किस धातु की — कितनी गहरी तथा कितनी बड़ी खदान है। उसे जमीन में दबी भिन्न धातुओं का प्रभाव अपने शरीर पर विभिन्न प्रकार के स्पंदनों से होता था। अनुभव ने उसे यह सीखा दिया था कि किस धातु का स्पंदन कैसा होता है। अपनी इस विशेषता का उसने भरपूर लाभ उठाया। कइयों को खदाने बता कर उनसे हिस्सा लिया और कुछ खदाने उसने अपने धन से खरीदीं और चलाई। अमेरिका का यह बहुत धन-सम्पन्न व्यक्ति इसी अपने विशेषता के कारण बना था।
- आयरलैंड के प्रो. वैरेट इस बात के लिए प्रख्यात थे कि वे भूमिगत जलस्रोतों तथा धातु खदानों का पता अपनी अन्तःचेतना से देखकर बात देते थे। इस विशिष्टता से उन्होंने अपने देशवासियों को बहुत लाभ पहुंचाया था।
- आस्ट्रेलिया का एक किसान भी पिछली शताब्दी में इस विद्या के लिए प्रसिद्धि पा चुका है, वह दो शंकु वाली टहनी हाथ में लेकर खेतों में घूमता फिरता था और जहां उसे जलस्रोत दिखाई पड़ता था वहां रुक जाता था। उस स्थान पर खोदे गए कुओं में प्रायः पानी निकल ही आता था।
- भारत के राजस्थान प्रान्त में एक पानी वाले महाराज जिन्हें माध्वनन्द जी कहते थे अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कितने ही सफल कुएं बनवा चुके थे।
भूमिगत अदृश्य वस्तुओं को देख सकने की विद्या को रेबडोमेन्सी कहते हैं। इस विज्ञान की परिधि में जमीन में दबे खनिज रसायन, जल, तेल आदि सभी वस्तुओं को जाना जा सकता है। किन्तु यदि केवल जल तलाश तक ही वह सीमित हो उसे ‘वाटर डाउनिंग कहेंगे।
- आयरलैंड के विकलो पहाड़ी क्षेत्र में दूर-दूर तक कहीं पानी का नाम निशान नहीं था। जमीन कड़ी, पथरीली थी। प्रो. वेनेट ने खदान विशेषज्ञों के सामने अपना प्रयोग किया वे कई घंटे उस क्षेत्र में घूमे अंततः वे एक स्थान पर रुके और कहा — केवल 14 फुट गहराई पर यहाँ एक अच्छा जलस्रोत है। खुदाई आरम्भ हुई और पूर्व कथन बिलकुल सच निकल। 14 फुट जमीन खोदने पर पानी की एक जोरदार धारा वहां से उवल पड़ी।
मानवी विद्युत को अध्यात्म विज्ञान में ओजस् , तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस् कहा गया है। इसे विकसित करने की प्रक्रिया योग-साधना एवं तपश्र्वर्य के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्मविद्या में इसी ‘चित् शक्ति’ के विकास पर जोर दिया गया है और कहा गया है कि मनुष्य शरीर में सन्निहित प्रकट और अप्रकट रहस्यमय शक्ति संस्थानों को जागृत करके मनुष्य देवस्तर की विशेषताओं से सम्पन्न हो सकता है।
भौतिक जगत के विकास प्रयोजनों में बिजली का जो उपयोग है उससे कहीं अधिक उपयोगिता व्यक्तित्व के समग्र विकास में मानवी विद्युत की है। उसका स्वरूप, आधार और उपयोग जानने के लिए हमें विशेष उत्साहपूर्वक प्रयत्न करने चाहिए।
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