हमारे इस पार्थिव जगत और ब्रह्माण्ड के अन्य लोक लोकान्तरों के बीच निःसंदेह एक सीमा है, एक अदृश्य रेखा है जो अनन्त है। आखिर उस अदृश्य सीमा रेखा के पार क्या है ? क्या शरीर रहते उस गहन शून्य में प्रवेश किया जा सकता है और उस शून्य में व्याप्त परम शांति का अनुभव किया जा सकता है ? जी हाँ। मगर कैसे ? समाधि (samadhi) की अवस्था में।

समाधि (Samadhi) द्वारा अनन्त में प्रवेश
योगी लोगों का कहना है कि मानव शरीर विश्व ब्रह्माण्ड का लघु संस्करण है। जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सब शरीर में है। मनुष्य का सिर मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है, पहला भाग कपाल प्रदेश है, दूसरा भाग है ब्रह्माण्ड। इसी ब्रह्माण्ड का एक क्षेत्र अभावग्रस्त है। यहां पर ‘अभाव’ का अर्थ है ‘अ’ भाव अर्थात जहां चित्त में किसी भी प्रकार का भाव उदित न हो। इसी ‘अभाव’ का दूसरा नाम ‘शून्य’ है।
ब्रह्माण्ड प्रदेश के इस क्षेत्र में शून्य व्याप्त है, उसे योगीगण महाशून्य कहते हैं। इसी प्रकार हृदय में एक शून्य क्षेत्र है जिसे केवल ‘शून्य‘ कहा जाता है। शून्य और महाशून्य में अपना विशिष्ट तारतम्य है। जिसे योगीगण ही समझते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार शून्य से महाशून्य में प्रवेश किया जाता है, वैसे ही महाशून्य से परमशून्य अर्थात विश्व ब्रह्माण्डीय शून्य में भी प्रवेश किया जा सकता है।
- मन और आत्मा (soul) एक ही पदार्थ के दो रूप है
- आत्मा का अस्तित्व इंकारा नहीं जा सकता – existence of soul
शून्य स्थान वासनाओं और इच्छाओं का केंद्र है। इसी केंद्र को वासना अथवा प्रेत लोक की संज्ञा दी गयी है। इच्छाओं और वासनाओं का नाश कभी नहीं होता। मृत्यु के समय संपूर्ण जीवन की अधूरी इच्छाएं और वासनाएं चित्त में एकत्र होने लगती है। मृत्यु के बाद उन्ही के अनुरूप प्रेत शरीर या वासना शरीर का तुरंत निर्माण होता है और जीवात्मा उसे वाहन के रूप में ग्रहणकर शून्य में प्रवेश करती है।
इस पृथ्वी पर बहुत ऐसे स्थान है जो वायु शून्य है। इन वायु शून्य स्थानों का संबंध इस शून्य से समझना चाहिए। प्रेत शरीरधारी जीवात्माएं वासना से प्रेरित होकर वायु शून्य स्थान से पृथ्वी पर आती है और संबंधित वस्तुओं और व्यक्तियों से संपर्क स्थापित करती हैं।
जिन-जिन स्थानों पर वायु शून्यता होगी समझ लीजिये वे स्थान प्रेतों की विचरण भूमि है। योगी और सिद्ध तांत्रिक प्राण शक्ति की सहायता से अथवा विशेष क्रिया के माध्यम से इस शून्य में प्रवेश करते हैं। इसी को भाव समाधि (bhava samadhi) कहते हैं।
भाव समाधि की स्थिति में दो प्रधान उद्देश्य होते हैं :-
- पहला वासना लोक का अतिक्रमण करना, इसलिए कि इस केंद्र का अतिक्रमण किये बिना अन्य लोक लोकान्तरों में नहीं जाया जा सकता।
- दूसरा वासना लोक की शक्तिशाली आत्माओं से भौतिक लाभ प्राप्त करना। यह दूसरा उद्देश्य विशेषकर तांत्रिको का होता है।
इसके बाद है महाशून्य अवस्था। यह मन और विचारों का केंद्र है। यह मनोमय लोक (manomaya lok) है। जीवात्मा इसमें मनःशरीर को वाहन बनाकर प्रवेश करती है और अपने विचारों के अनुसार वातावरण का निर्माण कर उसमें निवास करती है।
इसके बाद परम शून्य अवस्था अथवा परम शून्य स्थान है। यह केवल भावनाओं का केंद्र है। इसी को दिव्य लोक (divya lok) कहा गया है। जीवात्मा कारण शरीर को वाहक बनाकर इसमें प्रवेश करती है और अपनी भावनाओं के अनुसार निवास करती है।
भाव समाधि के बाद सविकल्प समाधि (Sabikalpa Samadhi) और निर्विकल्प समाधि (Nirbikalpa Samadhi) है। भावातीत होने पर योगीगण इन दोनों समाधियों द्वारा क्रम से उन दोनों स्थानों में प्रवेश करते हैं। निर्विकल्प समाधि की चरम उपलब्धि को योग की परमावस्था कहते हैं।
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