आमतौर से यह समझा जाता है कि खाने-पीने की गड़बड़ी से पेट खराब होता है और पेट की बीमारी उत्पन्न होते हैं ; इसमें आंशिक ही सच्चाई है। वस्तुतः तो खाने संबंधी आदतों से अपच का बहुत कुछ संबंध हैं लोग पेट की मांग से अधिक भोजन, चटोरपन की तृप्ति के लिए कहा जाते हैं और उसे चबाने पीसने के झंझट से बचने के लिए जल्दबाजी में ऐसे ही अधकुचले ग्रास गले से नीचे उतारते है।
भोजन का प्राकृतिक स्वरूप नष्ट करके उसे तलने भूनने और मिर्च मसाले युक्त बनाने में जो कुशलता दिखाई जाती है यदि उस पाक विद्या को भुलाकर सुपाच्य और सात्विक वस्तुएं साधारण आग पर उवाल, पकाकर खाएं तो वे सहज ही पच जायेंगी और जीवन तत्व बचे रहने के कारण शरीर का पोषण भी करेंगी। इन मोटे सिद्धांतों को भुला कर मनचला मनुष्य जीभ का वशवर्ती बन कर कुचाल चलता है और बेतरह मार खाता है। यही है मोटेतौर से उन पेट की बीमारियों का वास्तविक कारण जो आगे चलकर विविध विधि रोगों का कारण बनता है और अंततः जीवन दीपक को असमय में ही बुझा देता है।
लेकिन इससे बड़ा एक और कारण है जो सामान्य बुद्धि और शरीर शास्त्र की जानकारी से कुछ कदम आगे बढ़ाने पर ही समझा जा सकता है। यह कारण है मस्तिष्क का मनोविकारों से ग्रसित होना। चिंता, भय, आवेश, आशंका, ईर्ष्या, असंतोष, द्वेष जैसे उद्वेग यदि मस्तिष्क पर छाये रहें तो मनः संस्थान का सारा संतुलन बिगड़ जाता है और उसका प्रभाव सबसे पहले अधिक पेट पर पड़ता है।
सर्व विदित है कि मांस पेशियों का आकुंचन प्रकुचन, वायु संस्थान का श्वास प्राश्वास हृदय की धड़कन-शिराओं का रक्तभिषरण — ज्ञान तंतुओं का सूचना संदोह, कोशिकाओं का पुनर्निर्माण, जैसी अगणित शारीरिक क्रिया प्रक्रियाओं पर हमारे अचेतन मन का ही अधिकार होता है उसी के प्रशासन में शरीर की जीवन यात्रा चलती है। इस उद्गम के शिथिल, विकृत या विषाक्त होने पर उससे सबंधित शारीरिक यंत्र एवं क्रियाकलाप भी उद्विग्न रहता है तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से उसके अविच्छिन्न अंग अचेतन मन पर पड़ता है। जहां एक बिगड़ता है वहां दूसरे का बिगड़ना स्वाभाविक है।
अचेतन मन के गड़बड़ाने का नाम ही सनक एवं उन्माद है। विक्षित मनुष्यों का अचेतन ही रुग्ण होता है फलस्वरूप बुद्धिमत्ता को भी काठ मार जाता है और पागल पन की हरकतें उभर आती है। ठीक इसी प्रकार जब चेतन मस्तिष्क पर मनोविकार जन्य आवेश छाये रहते है तो उस ताप संताप में अचेतन मन की जीवनी शक्ति भी जलती है और उसकी रुग्णता स्वाभाविक आरोग्य की नींव खोखली करती जाती है। इसका प्रथम परिचय पेट की खराबी, अपच एवं कोष्ठ बद्धता के रूप में ही दृष्टिगोचर होता है। पेट में रुका हुआ मल सड़ता है और उससे उत्पन्न विषैली गैसें शरीर के विभिन्न अंगो में पहुंच कर अड्डा जमाती है और रोग उत्पन्न करती है।
स्थान और लक्षण के अनुरूप रोगों के अनेक नाम चिकित्सक लोग देते रहते हैं और उनकी प्रथक-प्रथक औषधियां निर्धारित करते रहते है पर गहराई से देखा जाय तो समस्त रोगों की जड़ पेट में बढ़ती हुई सड़न एवं विषाक्तता ही माननी पड़ेगी। जिसका पेट ठीक है यदि वह किसी सामयिक कारण से रुग्ण या बीमार भी हो जाय तो कुछ ही समय में सशक्त जीवनी शक्ति का भंडार उसे संभाल सुधार लेता है। किन्तु यदि पेट खराब है तो शिरदर्द, पेटदर्द, कमरदर्द, जुकाम, खांसी, अनिंद्रा, अर्श, रक्तचाप, उदासी, थकान, तनाव, खुजली, मूत्र रोग जैसे चलते फिरते रोग घेरे ही रहेगे और स्थिति अधिक बिगड़ी तो चारपाई थमा देने वाले डाक्टर का द्वार खटखटाने को विवश करने वाले असह्य रोग उठखड़े होंगे। रुग्णता सह्य है या असह्य चलती फिरती है या असह्य यह अलग बात है पर सब का उद्गम आरम्भ एक ही जगह से है। भारत की अधिकांश नदियां हिमालय से निकलती हैं, बादल अधिक तर समुद्र से ही उठते है। इसी प्रकार रोगों का पिता यह पेट ही है।
कहा जा चुका है कि आहार-विहार की गड़बड़ी से भी पेट खराब होता है इसलिए इस मोटे कारण को दवा-दारू के आधार पर नहीं वरन खान-पान संबंधी आदतों में हेर फेर करके दूर करना चाहिए। किन्तु बात इतने से भी बनने वाली नहीं, अगला कदम एक और शेष रह जाता हैं और वह है मानसिक उद्वेगों का समाधान निराकरण। हमारी मनः स्थिति शांत और संतुलित रहे तो ही यह आशा करनी चाहिए कि शरीर गत क्रिया कलाप अपनी स्वाभाविक धुरी पर घूमता रहेगा। यदि आवेशों ने मस्तिष्क को उत्तेजित रखा तो इस पटक से यह कोमल संस्थान टूट-फूट कर सारे शरीर यंत्र को ही निकम्मा एवं कष्ट ग्रसित बना देगा।
द्वितीय महायुद्ध में जिन हारे हुए सैनिकों का मनोबल टूट गया था उन्हें पेट की बीमारियों ने अपने चंगुल में कस लिया था। असफलताओं से खिन्न निराश ग्रस्त मनुष्यों का शरीर इस लायक नहीं रहता कि वे कड़ा परिश्रम कर सकें अथवा साहसिक कदम बढ़ा सकें। उन्हें लगता है कि वे खोखले हो गए है अब कुछ पुरुषार्थ करते उनसे न बन पड़ेगा। किसी स्वजन स्नेही की मृत्यु होने। बड़ी आर्थिक हानि होने अथवा सम्मान का पद छिन जाने पर अक्सर भारी शिथिलता आ दबोचती है और उसका प्रभाव पेट की खराबी से लेकर स्मरणशक्ति के अभाव और उदासीनता छाई रहने जैसे अवसादों के रूप में देखा जा सकता है।
मनः रोग विज्ञानी प्रो. केनन के कथनानुसार मस्तिष्क के ‘ओटोनोमिक‘ संस्थान का पाचन यंत्र के साथ सीधा संबंध है। ओटो नोमिक संस्थान के दो विभाग है :- सिम्पेथेटिक तथा पैरा सिम्पेथेटिक
यह दोनों ही पाचन रसों में घुले रहने वाले ‘एंजाइम‘ (Enzyme) उत्पन्न करने से लेकर उस यंत्र के विभिन्न अंगो को क्रियाशील रखने का काम करते हैं। मानसिक उद्वेग यदि इस मस्तिष्कीय केंद्र को प्रभावित कर रहे होंगे तो पेट के लिए अपना स्वाभाविक कार्य कर सकना कठिन हो जाएगा।
विशेष परिस्थितियों में ऐसा देखा भी जाता है। शोक या क्रोध की आवेश ग्रस्त मनः स्थिति में भूख प्यास भाग जाती है यदि उस स्थिति में कुछ खाया भी जाय तो उल्टी होने से लेकर पेटदर्द होने जैसी नई विपत्ति उठ खड़ी हो सकती है। शोकाकुल व्यक्ति बिना कुछ खाएं कई दिनों तक ऐसें ही पड़े विलाप करते रहते हैं और भूख-प्यास नींद न जाने कहां चली जाती है। स्पष्ट है कि मानसिक आवेगों का प्रभाव शरीर पर पड़ेगा ही। यह दुष्प्रभाव पेट को खराब करने से आरम्भ होकर क्रमशः अधिक बड़ी और अधिक विघातक रोग श्रृंखला के रूप में विकसित होता चला जाता है।
अधिकांश रोग ऐसे हैं जो न चिकित्सकों की समझ में आते हैं और न पकड़ में। अंधेरे में ढेला फेंकने की तरह वे सामने आये मरीज को कुछ न कुछ बताते और कुछ न कुछ खिलाते रहते है पर इस तीर तुक्का से कुछ बनता नहीं। मरीज एक चिकित्सक से निराश होकर दूसरे का दरवाजा खटखटाते है उर दूसरे से कुछ काम बनता न देखकर तीसरे की शरण जाते हैं। इस तरह की बीमारी में काम आने वाली प्रायः सभी दवाओं का प्रयोग परीक्षण उन पर हो लेता है पर व्यथा हटने का नाम नहीं लेती वरन उलटे दवाओं की विषैली प्रतिक्रिया से होने वाली हानि का बोझ और अधिक बढ़ जाता है। औषधि चिकित्सा की सफलता असफलता का लेखा-जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि जादू चमत्कार की तरह कुछ आरम्भिक लाभ भले ही हो जाय अथवा रोग का नाम रूप भले ही बदल दिया जाय उससे रोगों की जड़ नहीं कटती स्थायी समाधान नहीं निकलता। जिनमें पूर्ण सफलता मिली हो ऐसे औषधि चिकित्सा के परिणाम बहुत ही कम देखने में आते हैं।
इसका एक मात्र कारण यह है कि अधिकांश रोगों की जड़ हमारे मनः क्षेत्र में रहती है। समाधान वहाँ ढूंढा जाय तो विषवेलि की जड़ें फैलती ही रहेंगी और पत्ते सींचने से अभीष्ट परिणाम न निकलेगा। इस तथ्य को जितने जल्दी समझ लिया जा सके उतना ही अच्छा है क्योंकि बीमारियाँ पेट या रक्त की विकृति से नहीं मनोविकारों की भरमार के कारण असंतुलित हुए मस्तिष्क से उत्पन्न होती हैं। मानसिक संतुलन के लिए उस अवांछनीय चिंतन से छुटकारा प्राप्त करना पड़ेगा जो मस्तिष्कीय कोशिकाओं को थकाने और विषाक्त करने के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी है।
दूसरे सुसम्पन लोगों के साथ अपनी तुलना करके अपने को अभाव ग्रस्त मानने की व्यथा से भी कितने ही लोग गलते घुलते रहते है यदि वे अपने से दुखी या असफल लोगों के साथ तुलना करें तो अनुभव करेंगे कि जहां वे लाखों से पिछड़े हैं वहाँ करोड़ों से आगे भी हैं। ईश्वर का धन्यवाद दिया जा सकता है और भाग्य को सराहा जा सकता है कि अन्य प्राणियों तथा अपंग, असहाय मनुष्यों की तुलना में उनकी स्थिति कहीं अच्छी है। ऐसा विधेयात्मक चिंतन किसी को भी अभाव अथवा असफलता जन्य मनोव्यथा से छुटकारा दिला सकता है और उद्वेग जन्य रुग्णता की सहज चिकित्सा हो सकती है।
दूसरों के छिद्रान्वेषण करते रहने की आदत भी अपने आरोग्य के लिए घातक है। हर मनुष्य में हर परिस्थिति में कुछ न कुछ अच्छाई और कुछ न कुछ सीखने योग्य तथ्य अवश्य रहते हैं यदि उस पक्ष को देखने का अपना स्वभाव बन जाए तो घृणा, द्वेष निंदा की विषाक्त मनः स्थिति से पिण्ड छूट सकता है। जहाँ बुराई है उसे समझा और शांत चित्त से सुधारा जाना चाहिए। कई बार सुधार की दृष्टि से कठोर उपाय भी काम में लेने पड़ सकते हैं। इतने पर भी वह कदम हित चिंतन एवं सुधार प्रयोजन की दृष्टि से बिना उद्विग्न हुए उठाया जा सकता है विकृतियों का निराकरण करने के लिए घृणा या आवेश आवश्यक नहीं वह क्रिया तो सफलता पूर्वक शांत और संतुलित मनः स्थिति में ही हो सकती है।
हर किसी से भी डरें नहीं। संकट आने पर उससे जूझने की तैयारी करें और उन प्रयत्नों में जुट जाएं जिनके सहारे संभावित विपत्ति से निपटा जा सकता है। यही बात सिर पर लदी हुई विपत्ति पर लागू होती है। दुर्भाग्य का रोना रोने अथवा आगत संकट के कारण हो रही क्षति की व्याख्या करते रहने से कुछ काम नहीं चलता। रास्ता तो उपाय खोजने से ही बनता है और यह तभी हो सकता है जब धैर्य, साहस और विवेक का आश्रय लेकर संकट के क्षणों में भी मानसिक संतुलन बनाये रखा जाय।
आत्म विश्वास की कमी के कारण बहुत से लोग प्रस्तुत समस्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और सोचते हैं कि यह विपत्ति उसे मिटा कर ही छोड़ेगी, पर वस्तुतः ऐसा होता नहीं। हर बादल बरसती नहीं है, अधिक तर तो ऐसे ही अपना घटाटोप दिखा कर हवा के साथ उड़ जाती है। जब सुनहरे सपने तक साकार नहीं हो पाते तो संभावित आशंकाए ही मूर्तिमान होकर रहेंगी ऐसा क्यों समझा जाय ? आक्रमणकारी और उत्पाती तत्व वेशक इस संसार में बहुत है पर यह न भूल जाना चाहिए कि रक्षा और सहायता करने वाली शक्तियों का भी अस्तित्व मौजूद है। मनुष्य जैसी सत्ता को जरा-जरा से कारण ऐसे ही कुचल मसल कर रख दिया करें तो फिर इस धरती पर किसी का जीवन कैसे संभव होगा ?
मानसिक संतुलन के गड़बड़ा जाने में बाहरी परिस्थितियां उतनी निमित्त नहीं होतीं जितनी अपनी आंतरिक दुर्बलता और परिष्कृत चिंतन की कमी। यदि हम विधेयात्मक चिंतन की आदत डाल सकें और जीवन धारण किये रखने के लिए आवश्यक मात्रा में साहस इकट्ठा कर सकें तो मनोविकारों से सहज ही छुटकारा मिल सकता है साथ ही उस रुग्णता से भी छुटकारा मिल सकता है जो आये दिन नए-नए रूप बन कर तरह-तरह के रोगों के नाम से हमारे ऊपर संक्रमण करते है और चिकित्सकों को अगूंठा दिखाते हुए हमें दुख दारिद्र के गड्ढे में गिराते रहते हैं।
जिसका मन हार जाता है वह बहुत कुछ होते हुए भी अन्त में पराजित हो जाता है जो शक्ति न होते हुए भी मन से हार नहीं मानता उसको दुनिया की कोई ताकत परास्त नहीं कर सकती।
Credit : अखण्ड ज्योति
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